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Thursday, December 31, 2020

लड़कियां: जन्‍म के साथ भी जन्म के बाद भी भेदभाव का सिलसिला जारी

 23-जनवरी-2017 19:35 IST

विशेष लेख//राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाना//बरनाली दास

Pexels Photo by Anete Lusina
देश कल राष्‍ट्रीय बालिका दिवस मनाने जा रहा है। प्रत्‍येक वर्ष 24 जनवरी को हम बालिका दिवस मनाते हैं, समाज में बालिकाओं के लिए समान स्थिति और स्‍थान स्‍वीकार करते है और एक साथ मिलकर हमारे समाज में बालिकाओं के साथ हो रहे भेदभाव और असमानता के विरूद्ध संघर्ष का संकल्‍प लेते हैं।

लेकिन यह बहुत दुर्भाग्‍यपूर्ण और अत्‍यधिक चिंता का विषय है कि देश में वर्ष 1961 से ही बाल लिंग अनुपात तेजी से गिरता रहा है। हम वर्ष 2017 में है और 21वीं शताब्‍दी के दूसरे दशक को पूरा करने जा रहे है, लेकिन हम विचारधारा को बदलने में सफल नहीं हुए है।

एक शिक्षित, आर्थिक रूप से स्‍वतंत्र महिला और कार्य स्‍थल तथा घर में सम्‍मानित महिला के लिए यह वास्‍तविकता जानकर कठिनाई होती है कि भारतीय समाज में सभी वर्गों में बड़ी संख्‍या में लोग बेटा होने की इच्‍छा रखते हैं और नहीं चाहते कि उन्‍हें बेटी हो। ऐसे लोग भ्रूण हत्‍या की सीमा तक जाते हैं।

विभिन्‍न क्षेत्रों में कुछ लड़कियों द्वारा ऊंची उपलब्धि हासिल करने के बावजूद भारत में जन्‍म लेने वाली अधिकतर लड़कियों के लिए यह कठोर वास्‍तविकता है कि लड़कियां शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य जैसे बुनियादी अधिकारों और बाल विवाह से सुरक्षा के अधिकार से वंचित हैं। परिणामस्‍वरूप, आर्थिक रूप से सशक्‍त नहीं है, प्रताड़ित और हिंसा की शिकार हैं। जनगणना आंकड़ों के अनुसार बाल लिंग अनुपात (सीएसआर) 1991 के 945 से गिरकर 2001 में 927 हो गया और इसमें फिर 2011 में गिरावट आई और बाल लिंग अनुपात 918 रह गया। यह महिलाओं के कमजोर होने का प्रमुख सूचक है, क्‍योंकि यह दिखाता है कि लिंग आधारित चयन के माध्‍यम से जन्‍म से पहले भी लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है और जन्‍म के बाद भी भेदभाव का सिलसिला जारी रहता है।

लड़कियों के साथ व्‍यापक स्‍तर पर सामाजिक भेदभाव तथा नैदानिक उपायों की उपलब्‍धता और दुरूपयोग दोनों के कारण बाल लिंग अनुपात (सीएसआर) में कमी आई है। इस वास्‍तविकता से निपटना था और परिणामस्‍वरूप बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (बीबीबीपी) योजना लागू की गई है। यह योजना विभिन्‍न क्षेत्रों में पूरे देश में विचार विमर्श के बाद तैयार की गई है। 

22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत में प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी द्वारा लॉन्‍च की गई बीबीबीपी योजना का प्राथमिक लक्ष्‍य बाल लिंग अनुपात में सुधार करना तथा महिला सशक्तिकरण से जुड़े अन्‍य विषयों का समाधान करना है। दो वर्ष पुरानी यह योजना तीन मंत्रालयों-महिला तथा बाल विकास मंत्रालय, स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार कल्‍याण मंत्रालय तथा मानव संसाधान तथा विकास मंत्रालय द्वारा संचालित है। महिला तथा बाल विकास मंत्रालय नोडल मंत्रालय है। यह योजना अनूठी है और मनोदशा रिवाजों तथा भारतीय समाज में पितृसत्‍ता की मान्‍यताओं को चुनौती देती है।

Pexels-Photo by Vladi karpovich
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना को लागू करने के लिए बहुक्षेत्रीय रणनीति अपनाई गई है। इसमें लोगों की सोच को बदलने के लिए राष्‍ट्रव्‍यापी अभियान चलाना स्‍थानीय नवाचारी उपायों से समुदाय तक पहंचने पर बल देना, केन्‍द्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय द्वारा गर्भ पूर्व तथा जन्‍म पूर्व नैदानिक तकनीकी अधिनियम लागू करना और स्‍कूलों में लड़कियों के अनुकूल संरचना बनाकर बालिका शिक्षा को प्रोत्‍साहित करना तथा शिक्षा के अधिकार को कारगर ढंग से लागू करना शामिल है। शुरू में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना देश के सौ जिलों में लागू की गई। पिछले एक वर्ष में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, डिजिटल मीडिया तथा सोशल मीडिया सहित विभिन्‍न मीडिया में कार्यक्रम को लेकर अभियान चलाने से जागरूकता बढ़ी है। इस अभियान के तहत सामूहिक सामुदायिक कार्य और उत्‍सवों का आयोजन किया गया जैसे लड़की का जन्‍मदिन मनाना, साधारण तरीके से विवाह को बढ़ावा देना, महिलाओं के संपत्ति के अधिकार को समर्थन देना, सामाजिक तौर-तरीकों को चुनौती देने वाले स्‍थानीय चैम्पियनों को पुरस्‍कृत करना और युवाओं तथा लड़कों को शामिल‍ किया गया।

विभिन्‍न स्‍तरों पर ग्राम पंचायतों के माध्‍यम से लोगों से संवाद किया गया। बातचीत में प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा), आंगनवाड़ी कार्यकर्ता (एडब्‍ल्‍यूडब्‍ल्‍यू) ऑक्‍सीलियरी नर्सिंग मिडवाइफ (एएनएम) तथा स्‍वयं सहायता समूह के सदस्‍यों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, धार्मिक नेताओें और समुदाय के नेताओं को शामिल किया गया।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान को व्‍यापक बनाने के लिए, विशेषकर युवाओं में व्‍यापकता के लिए सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्मों का भी इस्‍तेमाल किया गया और  जन साधारण में बालिका के महत्‍व को लेकर सार्थक संदेश दिेये गये।

बे‍टी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के क्रियान्‍वयन के दूसरे वर्ष में गर्भ पूर्व तथा जन्‍म पूर्व नैदानिक तकनीकी अधिनियम को कठोरता से लागू करने पर ध्‍यान दिया जा रहा है और  मानव संसाधन विकास मंत्रालय लड़कियों की शिक्षा पर विशेष रूप से फोकस कर रहा है। गर्भावस्‍था के पंजीकरण, संस्‍थागत डिलीवरी तथा जन्‍म पंजीकरण जैसे उपायों पर भी बल दिया जा रहा है।

अभी देश के 161 जिलों में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना चलाई जा रही है। सौ जिलों से मिली प्रारंभिक रिपोर्ट संतोषपद्र है। यह संकेत मिलता है कि अप्रैल-मार्च 2014-15 तथा 2015-16 के बीच 58 बीबीबीपी जिलों में बाल लिंग अनुपात को लेकर समझदारी बढ़ी। 69 जिलों में त्रैमासिक पंजीकरण में बढ़ोतरी हुई और पिछले वर्ष की कुल डिलीवरी की तुलना में 80 जिलों में संस्‍थागत डिलीवरी में सुधार हुआ। हरियाणा में दिसम्‍बर, 2016 में दो दशकों में पहली बार जन्‍म पर लिंग अनुपात 900 पर पहुंचा।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के विभिन्‍न हितधारकों को सतत रूप से सक्रिय बनाए रखने के लिए महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा सिविल सोसाइटी, अंतर्राष्‍ट्रीय संगठनों और औद्योगिक संघों को भागीदार बनाया गया। इससे नागरिक समाज के संगठनों को अपने कार्यों को बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना से जोड़ने के लिए प्रेरणा मिली।

भारत में बालिका के भविष्‍य के लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना अत्‍याधिक महत्‍वपूर्ण और सफल योजना है। पहले वर्ष की सफलता से दिखता है कि देश में विपरीत बाल लिंग अनुपात को समाप्‍त करना सभी के सहयोग से संभव है।

* लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं और अभी एसओएस चिल्‍ड्रर्न विलिजेज ऑफ इंडिया में कम्‍युनिकेशन प्रमुख हैं। वह महिला और बाल विकास मंत्रालय की बीबीबीपी की कार्यक्रम प्रबंधन ईकाई के सहयोग को स्‍वीकार करती हैं।

*****वीके/एजी/जीआरएस -06

Wednesday, December 30, 2020

नारी शक्ति:गुमनामी की ज़िंदगी से शक्ति केंद्र तक का सफल सफर

 07-मार्च-2017 11:15 IST

विशेष लेख//तांकि महिला दिवस आने तक सभी के लिए विशेष अभियान चल सके 

                                                                                                                       *अनुपमा जैन

नारी संघर्ष की प्रतीकत्मक तस्वीर 


स्त्री शक्ति के जरिये परिवार,समाज और राष्ट्र को सशक्त तथा समृद्ध बनाने की राजस्थान की विभिन्न कल्याण योजनाओ से लगभग डेढ करोड़ परिवार की महिलाओ के'पॉवरफुल वुमेंन' बनने की दिशा में एक सकारात्‍मक कदम है। गुमनाम सी अंधेरी जिंदगी जी रही जयपुर की केसर देवी, बीकानेर की नानू देवी  जैसी लाखों महिलाओं को 'भामाशाह योजना' के तहत परिवार की मुखिया बना कर उन्‍हें अधिकार सम्पन्न बनाने से उनके परिवार लाभान्वित हो रहे हैं। 

लेखिका अनुपमा जैन 

दरअसल राजस्थान में इन दिनो महिला सशक्तिकरण को लेकर क्रांति हो रही है। प्रदेश की 'भामाशाह योजना' से दूर दराज के गांव, शहर की महिलायें 'पॉवरफुल वुमेंन' बन रही है। इसका अर्थ यह है कि अब लगभग एक करोड़ 30 लाख परिवारों के अहम फैसलों में मुखिया होने के नाते उनकी भूमिका खास बनती जा रही है। इस योजना के तहत आवश्यक जानकारियों के सत्यापन के बाद परिवार की महिला मुखिया के नाम से बहु उद्देशीय भामाशाह परिवार कार्ड बनाया जाता है। जानकारों का मानना है कि देश में महिला और उनके वित्तीय सशक्तीकरण की सबसे बड़ी भामाशाह योजना से राजस्थान में­ महिला आत्मनिर्भरता के एक नये युग का सूत्रपात हो रहा है। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का यह 'ड्रीम प्रोजेक्ट' है जिसके तहत महिलाओं को परिवार की मुखिया बना सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाले नगद लाभ सीधे उनके बैंक खातों में जमा करवाने और गैर नगद लाभ दिलवाने की अभिनव पहल है। भामाशाह योजना शुरू होने से राजस्थान में युगान्तरकारी परिवर्तन होने जा रहा है। यह योजना देश में अपनी तरह की पहली सीधी लाभ हस्तान्तरण योजना है।   

खास बात यह है कि भामाशाह योजना में राज्य के सभी परिवार अपना नामांकन करवा सकते हैं। भामाशाह योजना में नामांकन और भामाशाह कार्ड बनवाने को लेकर लोगों में अक्सर यह भ्रान्ति रहती है कि यह सुविधा केवल बीपीएल, बीपीएल महिला या किसी वर्ग विशेष के लिए है, जबकि वास्तविकता में इस योजना में राज्य के सभी परिवार अपना नामांकन करा सकते है। साथ ही यदि नामांकन में­ कोई त्रुटि अथवा अपूर्णता रह जाती है तो उसे संशोधित भी करवाया जा सकता है। इसी प्रकार भामाशाह कार्ड की यह विशेषता है कि यदि कार्ड गुम जाए अथवा चोरी हो जाता है तो भी कोई इसका दुरूपयोग नही कर पाएगा। चूंकि भामाशाह कार्ड बायोमैट्रिक पहचान सहित कोर बैंकिंग सुविधा युक्त है अतः यह पूरी तरह सुरक्षित है और लाभार्थी के खाते में जमा राशि उसके अलावा अन्य किसी के द्वारा निकालना संभव नही है। नामांकित परिवारों को संबंधित ग्राम पंचायत/शहरी निकाय के माध्यम से भामाशाह कार्ड निःशुल्क देने का प्रावधान है। सूत्रो के अनुसार  ऐसे परिवार जिनका भामाशाह योजना में ­ नामांकन होना है अथवा जिन्हे भामाशाह कार्ड जारी नही हुआ है उन परिवारों अथवा सदस्यों को सभी राजकीय सेवाएं आगामी आदेश तक पूर्व की तरह ही मिलती रहें­गी।

     राज्य सरकार द्वारा भामाशाह योजना में­ आवश्यक बदलाव कर इसे अधिक बड़े रूप में­ और अधिक व्यापक स्तर पर लागू किया जा रहा है और इसे प्रधानमंत्री की जन-धन योजना से भी जोड़ा गया है। भामाशाह योजना का उद्देश्य सभी राजकीय योजनाओं के नगद एवं गैर नगद लाभ सीधा पारदर्शी रुप से प्रत्येक लाभार्थी को पहुंचाना है। यह योजना के अंतर्गत राशन कार्ड, पेन्शन, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा के लिए छात्रावृत्ति पाने वाले लाभार्थियों को भी सम्मिलित किया जायेगा। यह योजना परिवार को आधार मानकर उनके वित्तीय समावेश के लक्ष्य को पूरा करती है और इसके तहत हर परिवार को भामाशाह कार्ड दिया जाएगा जो उनके बैंक खातों से जुड़े होंगे। यह बैंक खाता परिवार की मुखिया,जो कि महिला होगी के नाम से होगा और वह ही इस खाते की राशि को परिवार के उचित उपयोग में­ कर सकेगी। यह कार्ड बायो-मैट्रिक पहचान सहित कोर बैकिंग को सुनिश्चित करता है। इसके अन्तर्गत, प्रत्येक परिवार का सत्यापन किया जाएगा और पूरे राज्य का एक समग्र डेटाबेस बनाया जाएगा। इसके माध्यम से जाली कार्डों की भी जांच की जाएगी। विभिन्न विभागों द्वारा पात्राता के लिए सभी जनसांख्यिकी और सामाजिक मापदण्डों को भी इसमें सम्मिलित किया जाएगा। 

     आधिकारिक आंकड़ो के अनुसार अब तक राज्य के एक करोड़ 35 लाख परिवारों के 4 करोड़ 62 लाख व्यक्तियों का नामांकन हो चुका है एवं उन्हे बहुउद्देश्यीय भामाशाह परिवार पहचान कार्ड आवंटित किए जाने की प्रक्रिया चल रही है।  इस के तहत बैंक खातों में 4700 करोड़ रूपये का लाभ हस्तातंरित हो चुका है।

     जयपुर जिले की ग्राम पंचायत जमवारगढ़ की बीपीएल परिवार की बुजुर्ग श्रीमती केसर देवी मानती है भामाशाह कार्ड ने उन्हें एक नई पहचान दी है। अब भामा शाह कार्ड उनके लिये जादुई चिराग बन गया है क्‍योंकि केवल भामाशाह कार्ड के जरिए ही विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ प्राप्‍त किया जा सकता है। इसी तरह बीकानेर पंचायत समिति की बंबलू ग्राम पंचायत की बैसाखियों के सहारे चलने वाली नानू देवी  मानती है भामाशाह कार्ड उनकी लाठी है, भले ही वह चलने फिरने से लाचार हैं, लेकिन यह कार्ड उन्हें हर काम में सहारा देता है, चाहे वह पेंशन प्राप्‍त करना हो या कोई और कार्य। कार्ड के कारण उनमें नया आत्म विश्वास से भर गया है।

    आधिकारिक जानकारी के अनुसार यह सुविधा अटल सेवा केन्द्र तथा ई-मित्र केन्द्रों पर स्थाई रूप से उपलब्ध है। जहां किसी परिवार के सभी सदस्य एक साथ जाकर आधार कार्ड व बैंक खाता संख्या के अलावा आवश्यक जानकारी देकर नामांकन करा सकते हैं। यदि किसी परिवार का बैंक खाता नही हो तो उसे भी ई-मित्र केन्द्र पर खुलवाने की सुविधा उपल्ब्ध है। ई-मित्र केन्द्र या भामाशाह योजना की वेबसाइट के माध्यम से ऑनलाइन नामांकन भी कराया जा सकता है। नामांकन और कार्ड से संबंधित समस्याओं व शिकायतों के समाधान के लिए भामाशाह का प्रबंधक जिला कलेक्टर और सांख्यिकी अधिकारियों को इसका अधिकारी और उपखंड अधिकारियों को नोडल अधिकारी बनाया गया है।

    परिवार का कोई भी सदस्य अगर अपना व्यक्तिगत कार्ड बनवाने का इच्छुक हो तो वह 30 रुपये का शुल्क जमा करवाकर यह कार्ड बनवा सकता है। बीपीएल परिवार की महिला मुखिया को सरकार द्वारा भामाशाह कार्ड बनवाने पर दो किश्तों में 2 हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि दी जाती है जो महिला मुखिया के खाते में­ जमा करवा दी जाती है। इसकी पहली किश्त के रुप में­ एक हजार रुपये तथा छः महीने बाद दूसरी किश्त के रुप में लाभार्थी के खाते में एक हजार रुपये डालने का प्रावधान किया गया है।

भामाशाह योजना में पें­शन और छात्रावृति जैसे नगद लाभ तथा राशन सामग्री जैसे गैर नगद लाभों के वितरण की शुरूआत हो चुकी है। परिवारों के नामांकन के बाद सत्यापन और भामाशाह परिवार कार्ड बनने की प्रक्रिया के बीच पें­शन, छात्रावृति व राशन कार्ड से जुड़े महत्वपूर्ण विभागों के आंकड़ों के साथ भामाशाह के आंकड़ों का मिलान करते हुए इनमें एकरूपता लाई जा रही है। इससे परिवारों के बारे में दर्ज जानकारी से पें­शन, छात्रावृति व राशन सामग्री के पात्र वर्ग को 'नगद और गैर नगद लाभ’ का पारदर्शी तरीके से वितरण सुनिश्चित होगा। भविष्य में­ इस दूरदर्शी योजना में­ विभिन्न विभागों के अलग-अलग लाभ भी जोड़े जाएंगे। सूत्रो के अनुसार दरअसल इस योजना की परिकल्पना श्रीमती राजे ने अपने पिछले शासनकाल वर्ष 2008 में­ 'आधार कार्यक्रम' से बहुत पहले की थी।

   मुख्यमंत्री श्रीमती राजे ने दिसम्बर, 2013 में पुनः मुख्यमंत्री बनने के बाद भामाशाह योजना का कार्यान्‍वयन फिर से शुरु करने का निर्णय लिया और इसी क्रम में­ भामाशाह योजना का पुनः शुभारंभ गत वर्ष 15 अगस्त को इतिहास पुरूष महाराणा प्रताप को अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले महान दानवीर भामाशाह की पवित्र धरा मेवाड़ के खुबसूरत शहर उदयपुर में­ हुआ। भामाशाह योजना के प्रभावी कार्यान्‍वयन के लिये भारत सरकार द्वारा वर्ष 2015-16 में राष्ट्रीय-ई-गवर्नेंस का "स्वर्ण पुरस्कार" राजस्थान को प्रदान किया गया था।  सूत्रों के अनुसार अब इस योजना के लाभ व्यापक पैमाने पर नजर आने लगा है।

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 *लेखिका स्‍वतंत्र पत्रकार और डॉक्‍युमेंट्री निर्माता है। इस लेख में व्‍यक्‍त किये गये विचार उनके स्‍वयं के हैं।

वीके/एके/वाईबी/37

Tuesday, December 29, 2020

विशेष लेख//महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर समानता//*डॉ. साशा रेखी

 14-मार्च-2017 16:10 IST

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस–08 मार्च को याद दिलाते हुए तांकिकोई अभियान छेड़ा जा सके 

महिला समानता की प्रतीकत्मक तस्वीर Pexels-photo by Fauxels

इस वर्ष महिला दिवस का विषय “कार्यस्थल की दुनिया में समानता- वर्ष 2030 तक दुनिया में महिला-पुरुष अनुपात 50-50 करने का लक्ष्य” पर केन्द्रित है।

      यद्यपि कार्यस्थल की दुनिया एवं माहौल महिलाओं के लिए तेज़ी से बदल रहा है, इसके बावजूद, महिलाओं के लिए ‘कार्यस्थल पर समानता’ हासिल करने के लक्ष्य को पाने के लिए अभी हमे लंबी दूरी तय करनी है। हमें महिलाओं के वेतन, अवकाश, विशेषरूप से भुगतान सहित मातृत्व एवं शिशु देखभाल अवकाश, परिवार एवं बुज़ुर्गों की देखभाल के लिए विशेष अवकाश, गर्भावस्था के दौरान संरक्षण, स्तनपान कराने वाली महिलाओं की स्थिति के प्रति संवेदनशीलता और कार्यस्थल पर होने वाले यौन शोषण के क्षेत्र में महिलाओं के लिए पूर्ण समानता की ओर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है।

हमें अपने घरों की लड़कियों को पारंपरिक शिक्षक, बैंकर आदि नौकरियों के अलावा रोज़गार की व्यापक श्रेणियों (जैसे सेना, खेल आदि) में आगे बढ़ने और रोज़गार हासिल करने के लिए भी प्रेरित करने की ज़रूरत है। हमें अपनी बेटियों को यह सिखाने की आवश्यकता है कि वे बड़े सपने देखें और बड़ा कार्य करने की दिशा में सकारात्मक दृष्टि से कार्य करें।

महिलाओं के करियर में एक अन्य बाधा आत्मविश्वास में कमी और पूर्वाग्रह से ग्रसित होना है, जिसकी वजह से वह ख़ुद अपने आप से ही हार रही हैं। शादी, गर्भावस्था, शिशु जन्म, स्तनपान एवं शिशु देखभाल आदि को महिलाओं के करियर में बाधा या किसी रोक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

अपने जीवन में विभिन्न भूमिकाएं निभाने की वजह से आजकल महिलाएं कार्यस्थल, घर एवं समाज में विभिन्न चुनौतियां का सामना कर रही हैं। हम महिलाओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे मेहनत एवं ईमानदारी से नौकरी करने के अलावा गृहिणी, बेटी, बहु, पत्नी एवं समाज में निर्धारित कई अन्य भूमिकाओं को शानदार तरीके से निभाए। परिणामस्वरूप, परिवार एवं आसपास के लोगों की अपेक्षाओं को पूरी न कर पाने की वजह से ज़्यादातर महिलाएं अपराधबोध से ग्रसित हैं। इसकी वजह से महिलाओं में चिंता, अवसाद, खाने का विकार आदि समस्याएं बढ़ रही हैं। कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सुरक्षित एवं बेहतर माहौल के अलावा, महिलाओं के प्रति समाज के दृष्टिकोण एवं व्यवहार में भी व्यापक स्तर पर बदलाव लाने की आवश्यकता है। घर एवं कार्यस्थल, दोनों ही जगहों पर काबिले-तारीफ भूमिका निभाने के लिए, महिलाओं के ऊपर उनकी सीमा से अधिक कार्य करने के लिए दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए।

हमें कार्यस्थल पर महिलाओं की सफलता को सकारात्मक नज़रिए के साथ स्वीकृति देने की आवश्यकता है। यदि कोई महिला सफल होती है तो उसे घर एवं कार्यस्थल दोनों ही जगहों पर विरोध एवं शत्रुता का सामना करना पड़ता है, जबकि वास्तविक तथ्य यह है कि यदि किसी परिवार की महिला भी कार्य करती है तो उस परिवार के जीवन की गुणवत्ता में सकारात्मक रूप से काफी अधिक सुधार हो जाता है। महिलाओं को अपने पेशेवर कार्य के लिए दोषी महसूस नहीं कराया जाना चाहिए, क्योंकि दोनों अभिभावकों का घर से बाहर कार्य करना, बच्चों के लिए खासतौर पर लड़कियों के समग्र विकास के लिए काफी अच्छा होता है। “वह करियर को लेकर अत्यधिक केन्द्रित एवं सकारात्मक है”, इस वाक्य को आज भी समाज में नकारात्मक तारीफ के रूप में देखा जाता है।

हमें युवाओं के बीच ऐसे मूल्यों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है कि वे बढ़े होने के क्रम में ही महिलाओं के साथ कार्य करने और कार्यस्थल पर उनके बेहतर सहयोगी बनने में गर्व महसूस करें। महिलाओं के कार्य करने को नकारात्मक नज़रिए से देखने के बजाय, उनकी प्रतिभा और कार्य की सराहना करें। हमें ऐसे परिवारों की आवश्यकता है, जहां स्वस्थ कार्य वातावरण उपलब्ध कराने के लिए पुरुष भी घरेलू ज़िम्मेदारियों को महिलाओं के साथ मिलकर साझा करें। जिन परिवारों में लिंग के आधार पर भेदभाव कम है (जैसेः मां कार्यस्थल पर नौकरी के लिए जाती हैं और पिता घरेलू ज़िम्मेदारियां संभालते हैं), ऐसे परिवारों के बच्चे अधिक आत्मबल से परिपूर्ण होते हैं। जैसे कि एक बार प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि हमें अपने लड़कों के व्यवहार में व्यापक स्तर पर बदलाव लाने के ज़रूरत है ताकि वे महिलाओं का सम्मान करना सीख सकें। युवा पीढ़ी के पुरुषों को अपने जीवनसाथी के करियर में अहम योगदान देना चाहिए। हमें अपने लड़कों को जीवन में अपने व्यक्तित्व को सौम्य एव सह्रदय बनाने की शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चों और बुज़ुर्गों की सेवा करना और उनकी ज़रूरतों को पूरा करना आदि कार्य सिखाने चाहिए ताकि वे भी ज़रूरत पड़ने पर महिलाओं के समान इन पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को अपना कर्तव्य समझकर निभा सकें। हमें अपने लड़कों को संतुलित परिवार एवं करियर के मूल्यों को सिखाना चाहिए। हमें उनको यह समझाने की ज़रूरत है कि शरीर की संपूर्ण रचना और शारीरिक दृष्टि से महिलाओं के भी समान सपने और महत्वाकांक्षाएं हैं। लड़कियों को कठोर एवं मज़बूत होने की प्रेरणा देने के अलावा, हमें लड़कों के प्रति अपने रवैये को बदलने की भी आवश्यकता है।

पिछले कुछ समय के दौरान, उच्च श्रेणी की नौकरियों एवं वित्तीय सशक्तता में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में व्यापक सुधार दर्ज किया गया है, इसके बावजूद, हमें पेशवर महिलाओं के प्रति अपने अचेतन पूर्वाग्रहों को बदलने की ज़रूरत है। महिलाओं में व्यावहारिक परिवर्तन लाने की भी ज़रूरत है। महिलाओं को ख़ुद के भीतर मौजूद अपार संभावनाओं को लेकर आश्वस्त एवं गौरवान्वित होना चाहिए। महिलाओं के लिए समानता का मतलब केवल समान वेतन नहीं, बल्कि समान अवसर, करियर चुनने की समान स्वतंत्रता और विभिन भूमिकाओं को अदा करना होना चाहिए।

महिला दिवस पर, पूर्वाग्रह एवं असमानताओं को चुनौती और महिलाओं की उपलब्धियों की यात्रा के जश्न द्वारा “बदलाव के लिए सशक्त बनने” की दिशा में महिलाओं को समाधान निकालना चाहिए। आओ, सभी बाधाओं पर काबू पाने के बाद, हम करियर के क्षेत्र में महिलाओं की जीत को सुदृढ़ बनाएं एवं उसका समर्थन करें। महिलाओं के लिए नई रोज़गार के अवसरों का सृजन करें, बदलाव के लिए अत्यंत सशक्त एवं खुले विचारों वाले बनें। (PIB)


Sunday, November 22, 2020

महिलाओं को दोयम दर्जे का बनाए रखने की गंभीर साज़िश

  22nd November 2020 at 3:08 PM

 मंगलसूत्र, पितृसत्तात्मकता और धार्मिक राष्ट्रवाद-राम पुनियानी 

तस्वीर आनंद पवार साहिब के  साभार 

भोपाल
: 22 नवंबर 2020: (राम पुनियानी//वीमैन स्क्रीन)
गोवा के लॉ स्कूल में सहायक प्राध्यापक शिल्पा सिंह के खिलाफ हाल (नवम्बर 2020) में इस आरोप में एक एफआईआर दर्ज की गई कि उन्होंने मंगलसूत्र की तुलना कुत्ते के गले में पहनाए जाने वाले पट्टे से की। शिकायतकर्ता का नाम राजीव झा बताया जाता है।  वो राष्ट्रीय युवा हिन्दू वाहिनी नामक संस्था से जुड़ा है।  एफआईआर में कहा गया है कि शिल्पा सिंह ने जानबूझकर शिकायतकर्ता की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई।  एबीवीपी ने कॉलेज के मैनेजमेंट से भी शिल्पा की शिकायत की है। 

अपने जवाब में शिल्पा ने कहा, “बचपन से मुझे यह जिज्ञासा रही है कि विभिन्न संस्कृतियों में केवल महिलाओं को ही उनकी वैवाहिक स्थिति का विज्ञापन करने वाले चिन्ह क्यों धारण करने होते हैं, पुरुषों को क्यों नहीं।” उन्होंने मंगलसूत्र और बुर्के का उदाहरण देते हुए हिन्दू धर्म और इस्लाम की कट्टरवादी परम्पराओं की आलोचना की। उनके इस वक्तव्य से एबीवीपी आगबबूला हो गयी। 

शिल्पा, दरअसल, उन पितृसत्तात्मक प्रतीकों का विरोध कर रहीं हैं जो हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का भाग बन गईं हैं और जिन्हें विभिन्न धार्मिक समुदायों द्वारा अपनी महिलाओं पर थोपा जाता है। ये काम शिल्पा तब कर रहीं हैं जब हमारे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में धार्मिक राष्ट्रवाद का बोलबाला बढ़ रहा है। भारत में इस तरह के नियमों और परम्पराओं को अचानक अधिक सम्मान मिलने लगा है। रूढ़िवादी नियमों को आक्रामकता के साथ सब पर लादा जा रहा है। उन्हें नया ‘नार्मल’ बनाने की कोशिशें हो रहीं हैं। 

सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद का एकमात्र लक्ष्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण  है।  परन्तु यह हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद (हिंदुत्व) के एजेंडे का केवल वह हिस्सा है जो दिखलाई देता है।  दरअसल, धर्म का चोला पहने इस राष्ट्रवाद के मुख्यतः तीन लक्ष्य हैं: पहला है धार्मिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण। यह हमारे देश में देखा जा सकता है। मुसलमानों को समाज के हाशिये पर धकेला जा रहा है और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के हर संभव प्रयास हो रहे हैं। दूसरा लक्ष्य है दलितों को उच्च जातियों के अधीन बनाए रखना। इसके लिए सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया जा रहा है. तीसरा और महत्वपूर्ण लक्ष्य है महिलाओं का दोयम दर्जा बनाए रखना। एजेंडे के इस तीसरे हिस्से पर अधिक चर्चा नहीं होती परन्तु वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितने कि अन्य दो हिस्से। 

भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी राजनीति धर्म के रेपर में लपेट कर पेश की जा रही है वहां वह पितृसत्तात्मकता को मजबूती देने के लिए विविध तरीकों से प्रयास करती है। भारत में महिलाओं के समानता की तरफ कदम बढ़ाने की शुरुआत सावित्रीबाई फुले द्वारा लड़कियों के लिए पाठशाला स्थापित करने और राजा राममोहन राय द्वारा सती प्रथा के उन्मूलन जैसे समाज सुधारों से हुई। आनंदी गोपाल और पंडिता रामाबाई जैसी महिलाओं ने अपने जीवन और कार्यों से सिद्ध किया कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति नहीं हैं और ना ही वे पुरुषों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियां हैं। ये सभी क्रन्तिकारी कदम पितृसत्ता की इमारत पर कड़े प्रहार थे और इनका विरोध करने वालों ने धर्म का सहारा लिया। 

जैसे-जैसे महिलाएं स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ने लगीं, पितृसत्तात्मकता की बेड़ियाँ ढीली पड़ने लगीं।  पितृसत्तात्मकता और जातिगत पदक्रम के किलों के रक्षकों ने इसका विरोध किया. हमारे समाज में जातिगत और लैंगिक दमन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 

भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी एक समस्या बन कर उभरी। मुस्लिम लीग के संस्थापक इस समुदाय के श्रेष्ठी वर्ग के पुरुष थे। इसी तरह, हिन्दू महासभा की स्थापना उच्च जातियों के पुरुषों ने की। ये दोनों ही संगठन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को थामना चाहते थे। 

इस समय भारत में ऊंचनीच को बढ़ावा देने में हिन्दू साम्प्रदायिकता सबसे आगे है। सांप्रदायिक ताकतों का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हाथ में है, जो केवल पुरुषों का संगठन है। जो महिलाएं ‘हिन्दू राष्ट्र’ के निर्माण में सहयोगी बनना चाहतीं थीं उन्हें राष्ट्रसेविका समिति बनाने की सलाह दी गयी। कृपया ध्यान दें कि महिलाओं के इस संगठन के नाम से ‘स्व’ शब्द गायब है। यह मात्र संयोग नहीं है। यह इस बात का द्योतक है कि पितृसत्तात्मक विचारधाराएं महिलाओं के ‘स्व’ को पुरुषों के अधीन रखना चाहतीं हैं। इन विचारधाराओं के पैरोकारों के अनुसार महिलाओं को बचपन में अपने पिता, युवा अवस्था में अपने पति और बुढ़ापे में अपने पुत्रों के अधीन रहना चाहिए। लड़कियों के लिए दुर्गा वाहिनी नामक संगठन भी बनाया गया है। 

सती प्रथा का उन्मूलन, महिलाओं की समानता की ओर यात्रा का पहला बड़ा पड़ाव था। परन्तु भाजपा सन 1980 के दशक तक इस प्रथा की समर्थक बनी रही।  राजस्थान के रूपकुंवर सती काण्ड के बाद भाजपा की तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया ने संसद तक मार्च निकल कर यह घोषणा की कि सती प्रथा न केवल भारत की महान परंपरा का हिस्सा है वरन सती होना हिन्दू महिलाओं का अधिकार है। ‘सैवी’ नामक पत्रिका को अप्रैल 1994 को दिए गए अपने साक्षात्कार में भाजपा महिला मोर्चा की मृदुला सिन्हा ने दहेज प्रथा और पत्नियों की पिटाई को उचित ठहराया था। संघ के एक पूर्व प्रचारक प्रमोद मुतालिक ने मंगलौर में पब में मौजूद लड़कियों पर हमले का नेतृत्व किया था। वैलेंटाइन्स डे पर बजरंग दल नियमित रूप से प्रेमी जोड़ों पर हमले करता रहा है। लव जिहाद का हौव्वा भी महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने के लिए खड़ा किया गया है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभिवावकों से कहा है कि वे अपनी लड़कियों पर नज़र रखें और यह देखें कि वे मोबाइल पर किससे बातचीत कर रहीं हैं। 

अमरीका में महिलाओं को जो स्वतंत्रताएं हासिल हैं उन्हें देखकर भारत से वहां गए हिन्दू प्रवासियों को इतना धक्का लगता है कि वे विश्व हिन्दू परिषद और संघ से जुड़ी अन्य संस्थाओं के शरण में चले जाते हैं। वे उन लैंगिक समीकरणों को बनाए रखना चाहते हैं जिन्हें वे भारत से अपने साथ ले जाते हैं। 

ऐसा नहीं है कि केवल संघ ही पितृसत्तात्मकता को औचित्यपूर्ण ठहरता है और "लड़कियों पर नज़र रखने" की बात कहता है. हमारा पूरा समाज इस पश्यगामी सोच के चंगुल में है।  यही कारण है कि शिल्पा सिंह जैसी महिलाएं, जो मंगलसूत्र या बुर्के के बारे में अपने विचार प्रगट करतीं हैं, उन्हें घेर लिया जाता है। संघ के अलावा धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली अन्य ताकतें भी लैंगिक मसलों पर ऐसे ही विचार रखतीं हैं। इस मामले में तालिबान व बौद्ध और ईसाई कट्टरपंथी एक ही नाव पर सवार हैं।  हाँ, उनकी कट्टरता के स्तर और अपनी बात को मनवाने के तरीकों में फर्क हो सकता है। 

शिल्पा सिंह इसके पूर्व रोहित वेम्युला, बीफ के नाम पर लिंचिंग और दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तर्किक्तावादियों की हत्या जैसे मुद्दों पर भी अपनी कक्षा में चर्चा करतीं रहीं हैं। आश्चर्य नहीं कि एबीवीपी उन पर हमलावर है।  (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)   (16 नवंबर, 2020 को  गया)


Saturday, September 12, 2020

समर्पित आत्‍मा:सिस्‍टर निवेदिता, आज के भारत के लिए एक प्रेरणा

 विशेष सेवा और सुविधाएँ25-October, 2017 09:33 IST                                 *अर्चना दत्‍ता मुखोपाध्‍याय
 विशेष लेखः सिस्‍टर निवेदिता की 150वी जयंती (28 अक्टूबर)  

महान स्‍वतंत्रता सेनानी बिपिन चन्‍द्र पाल ने
कहा था, ‘मुझे संदेह है कि किसी और भारतीय ने उस प्रकार भारत से प्रेम किया होगा, जैसे निवेदिता ने किया था।’ टैगोर ने भारत को उनकी स्‍व-आहूतिपूर्ण सेवाओं के लिए उन्‍हें ‘लोक माता’ की उपाधि दी थी। सुश्री मार्ग्रेट एलिजाबेथ नोबल को स्‍वामी विवेकानंद द्वारा ‘समर्पित’ निवेदिता का नया नाम दिया गया था।
अर्चना दत्‍ता मुखोपाध्‍याय
भारतीय महिलाओं के उत्‍थान के लिए
स्‍वामीजी के उत्‍कट आह्वान से प्रेरित होकर निवेदिता 28 जनवरी, 1898 को अपनी ‘कर्म भूमि’ भारत के तटों पर पहुंची और वास्‍तविक भारत को जानने का कार्य आरंभ कर दिया।  
 निवेदिता ने एक राष्‍ट्र के रूप में भारत के आंतरिक मूल्‍यों एवं भारतीयता के महान गुणों की खोज की। उनकी पुस्‍तक ‘द वेब ऑफ इंडियन लाइफ’ अनगिनत निबंधों, लेखों, पत्रों एवं 1899-1901 के बीच एवं 1908 में विदेशों में दिए गए उनके व्‍याख्‍यानों का एक संकलन है। ये सभी भारत के बारे में उनके ज्ञान की गहराई के प्रमाण हैं।
भारतीय मूल्‍यों एवं परम्‍पराओं की महान समर्थक निवेदिता ने ‘वास्‍तविक शिक्षा--- राष्‍ट्रीय शिक्षा’ के ध्‍येय को आगे बढ़ाया और उनकी आकांक्षा थी कि भारतीयों को ‘भारत वर्ष के पुत्रों एवं पुत्रियों’ के रूप में न कि ‘यूरोप के भद्दे रूपों’ में रूपांतरित किया जाए। वे चाहती थीं कि भारतीय महिलाएं कभी भी पश्चिमी ज्ञान और सामाजिक आक्रामकता के मोह में न फंसे और ‘अपने वर्षों पुराने लालित्‍य एवं मधुरता, विनम्रता और धर्म निष्‍ठा’ का परित्‍याग न करें। उनका विश्‍वास था कि भारत के लोगों को ‘भारतीय समस्‍या के समाधान के लिए’ एक ‘भारतीय मस्तिष्‍क’ के रूप में शिक्षा प्रदान की जाए।
निवेदिता ने 1898 में
कोलकाता के उत्‍तरी हिस्‍से में एक पारम्‍परिक स्‍थान पर अपना प्रायोगिक विद्यालय खोला न कि नगर के मध्‍य हिस्‍से में जहां अधिकतर यूरोप वासी रहते थे। उन्‍हें वास्‍तव में अपने पड़ोस के हर दरवाजे पर जाकर छात्रों के लिए भीख मांगनी पड़ती थी। उनकी इच्‍छा थी कि उनका विद्यालय आधुनिक युग की ‘मैत्रेयी’ और ‘गार्गी’ का निर्माण करें और इसे एक ‘महान शैक्षणिक आंदोलन’ का केन्‍द्र बिन्‍दु बनाए।
विद्यालय की गतिविधि‍यां सच्‍चे राष्‍ट्रवादी उत्‍साह में डूबी हुई थीं। जब देश में ‘वन्‍दे मातरम’ पर प्रतिबद्ध लगा हुआ था, उस वक्‍त यह प्रार्थना उनके विद्यालय में गाई जाती थी। जेलों से स्‍वतंत्रता सैनानियों की रिहाई उनके लिए जश्‍न का एक अवसर हुआ करता था। निवेदिता अपने वरिष्‍ठ छात्रों को स्‍वतंत्रता आंदोलन के महान भाषणों को सुनने के लिए ले जाया करती थीं जिससे उनमें स्‍वतंत्रता संग्राम के मूल्‍यों को पिरोया जा सके।
1904 में निवेदिता ने महान संत ‘दधीचि’ स्‍व आहुति के आदर्शों पर केन्‍द्र में ‘व्रज’ के साथ पहले भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज की एक प्रतिकृति की डिजाइन बनाई थी। उनके छात्रों ने बंगला भाषा में ‘वंदे मातरम’ शब्‍दों की कशीदाकारी की थी। इस ध्‍वज को 1906 में भारतीय कांग्रेस द्वारा आयोजित एक प्रदर्शनी में भी किया गया था।
उनके लिए शिक्षा सशक्तिकरण का एक माध्‍यम थी। निवेदिता ने अपने छात्रों को उनके घरों से आजीविका अर्जित करने में सक्षम बनाने के लिए उन्‍हें पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ हस्‍तकलाओं एवं स्‍व-रोजगार प्रशिक्षण भी दिया। वह वयस्‍क एवं युवा विधवाओं को शिक्षा एवं कौशल विकास के क्षेत्र में लेकर आईं। निवेदिता ने अपने दिमाग में पुराने भारतीय उद्योगों के पुरुत्‍थान एवं उद्योग तथा शिक्षा के बीच संपर्क स्‍थापित करने की एक छवि बना रखी थी।
निवेदिता ने भारतीय मस्तिष्‍कों में राष्‍ट्रवाद प्रज्‍ज्वलित करने में महान भूमिका निभाई। उन्‍होंने भारत के पुरुषों एवं महिलाओं से अपील की कि वे अपनी मातृभूमि से प्रेम करने को अपना नैतिक कर्तव्‍य बनाए, देश के हितों की रक्षा करना अपनी ‘जिम्‍मेदारी’ समझें और मातृभूमि की पुकार पर किसी भी आहूति के लिए तैयार रहें।
भारत का एकीकरण उनके दिमाग में सबसे ऊपर था और उन्‍होंने भारत के लोगों से अपने दिल एवं दिमाग में इस ‘मंत्र’ का उच्‍चारण करने का आग्रह किया कि ‘भारत एक है, देश एक है और हमेशा एक बना रहेगा।’
 निवेदिता ने 1905 में पूरे मनोयोग से स्‍वदेशी आंदोलन का स्‍वागत किया और कहा कि विदेशी वस्‍तुओं का बहिष्‍कार करना केवल राजनीति या अर्थव्‍यवस्‍था का मसला ही नहीं है बल्कि यह भारतीयों के लिए एक ‘तपस्‍या’ भी है।
निवेदिता विभिन्‍न विषयों पर एक सफल लेखिका थीं। ज्‍वलंत मुद्दों पर भारत के दैनिक समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में छपे उनके लेख लोगों में देशभक्ति की भावना जगाते थे और उन्‍हें कदम उठाने के लिए प्रेरित करते थे, चाहे यह स्‍वतंत्रता आंदोलन हो, कला एवं संस्‍कृति का उत्‍थान हो या आधुनिक विज्ञान या शिक्षा के क्षेत्र में उन्‍हें आगे बढ़ाना हो। 
निर्धनों एवं जरूरतमदों के प्रति निवेदिता की सेवाएं, चाहे कोलकाता में प्‍लेग महामारी के दौरान हो या बंगाल में बाढ़ के दौरान, उनके बारे में बहुत कुछ कहती हैं। निवेदिता भारत में किसी भी प्रगतिशील आंदोलन में एक उल्‍लेखनीय ताकत बन गई।
वास्‍तव में उनकी 150वीं जयंती मनाने के इस अवसर पर राष्‍ट्र को उनके बहुआयामी व्‍यक्तित्‍व के योगदान का पुनर्मूल्‍यांकन करने की जरूरत है। निवेदिता ने भारत में महिलाओं के लिए ‘प्रभावी शिक्षा’ एवं ‘वास्‍तविक मुक्ति’ को ‘कार्य करना, तकलीफें झेलना और उच्‍चतर  स्थितियों में प्रेम करना, सीमाओं से आगे निकल जाना; महान प्रयोजनों के प्रति संवेदनशील रहना; राष्‍ट्रीय न्‍यायपरायणता द्वारा रूपांतरित होना, के रूप में परिभाषित किया है। यह आज के भारत में महिलाओं के लिए एक बड़ी प्रेरणा है जो जीवन के कठिन कार्यक्षेत्र में सामाजिक पूर्वाग्रहों, वर्जनाओं एवं सांस्कृतिक रूढि़यों के खिलाफ लड़ते हुए अपने कौशलों को प्रखर बना रही हैं। (PIB)
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* अर्चना दत्‍ता प्रशासनिक सेवा की एक पूर्व अधिकारी हैं। वह महानिदेशक (समाचार), आकाशवाणी एवं दूरदर्शन थीं।
इस रचना में दिखाई दे रहीं तस्वीरें  सिस्टर  निवेदिता गर्ल्ज़ स्कूल से साभार ली गई हैं। 

Friday, September 11, 2020

कोविड-19: महिलाएँ सर्वाधिक प्रभावित,

 चरम ग़रीबी मिटाने में हुई प्रगति पलटने का जोखिम 


बांग्लादेश की राजधानी ढाका में कोविड-19 के कारण बड़ी संख्या में लोगों की आय का स्रोत खो गया है
     ---UN Women/Fahad Kaizer

2 सितम्बर 2020//महिलाएं

वैश्विक महामारी कोविड-19 और उसके सामाजिक-आर्थिक दुष्प्रभाव चार करोड़ 70 लाख महिलाओं को ग़रीबी के गर्त में धकेल सकती है. संयुक्त राष्ट्र ने बुधवार को एक नई रिपोर्ट जारी की है जो दर्शाती है कि कोरोनावायरस संकट के कारण चरम ग़रीबी से निपटने में अब तक हुई दशकों की प्रगति की दिशा उलटने का ख़तरा पैदा हो गया है। यूएन के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा है कि कोविड-19 से उबरने के दौरान पुनर्बहाली कार्रवाई और नीतिगत प्रयासों के केन्द्र में महिलाओं को रखना होगा। 

महिला सशक्तिकरण के लिये संयुक्त राष्ट्र संस्था (UN Women) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा कराए गए इस अध्ययन में महिलाओं के लिये ग़रीबी दर में 9.1 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। 

कोविड-19 से पहले वर्ष 2019 से 2021 के बीच इस दर के 2.7 फ़ीसदी घटने का अनुमान था। 

अनुमान दर्शाते हैं कि विश्वव्यापी महामारी से दुनिया भर में ग़रीबी पर असर पड़ा है लेकिन इसका महिलाओं, विशेषत: प्रजनन उम्र की महिलाओं पर ज़्यादा असर हुआ है। 

वर्ष 2021 तक, 25 से 34 वर्ष आयु वर्ग में चरम ग़रीबी का सामना करने वाले हर 100 पुरुषों की तुलना में 118 महिलाएँ चरम ग़रीबी का शिकार होंगी. प्रतिदिन 1 डॉलर 90 सेंट (लगभग 140 रुपये) या उससे कम रक़म पर गुज़ारा करने वाले लोग चरम ग़रीबी की श्रेणी में आते हैं। 

वर्ष 2030 तक यह अन्तर 100 पुरुषों की तुलना में 121 महिलाओं तक बढ़ने की आशंका है। 

'From Insights to Action: Gender Equality in the Wake of COVID-19' शीर्षक वाली इस रिपोर्ट के आँकड़े दर्शाते हैं कि कोविड-19 के कारण साढ़े नौ करोड़ से ज़्यादा लोग वर्ष 2021 तक चरम ग़रीबी के गर्त में धँस जाएँगे. इनमे क़रीब साढ़े चार करोड़ महिलाएँ व लड़कियाँ हैं। 

इन हालात में चरम ग़रीबी का शिकार हुए कुल लोगों की संख्या बढ़कर 43 करोड़ 50 लाख हो जाएगी और इस आँकड़े को महामारी से पहले के स्तर पर वर्ष 2030 से पहले नहीं लाया जा सकेगा।   

पुनर्बहाली के केन्द्र में महिलाएँ

संयुक्त राष्ट्र महिला संस्था की कार्यकारी निदेशक पुमज़िले म्लाम्बो-न्गुका ने बताया कि चरम ग़रीबी का दंश झेलने वाली महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी, समाज और अर्थव्यवस्था की विसंगतियाँ व ख़ामियाँ उजागर करती है। 

“हम जानते हैं कि परिवार की देखरेख करने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी महिलाएँ निभाती हैं. वे कम आमदनी अर्जित करती हैं, कम बचत कर पाती हैं और उनके रोज़गार भी कम निश्चित होते हैं।” 

उन्होंने बताया कि कुल मिलाकर पुरुषों की तुलना में महिलाओं के रोज़गारों पर 20 फ़ीसदी ज़्यादा जोखिम है। 

यूएन की वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक इतनी सारी विषमताओं के तथ्यों के बाद महामारी से उबरते समय नीतिगत कार्रवाई को तेज़ गति से आगे बढ़ाया जाना होगा और उसके केन्द्र में महिलाओं को रखना होगा।  

लैंगिक विषमताओं से निपटना 

टिकाऊ विकास के 2030 एजेण्डा में वर्ष 2030 तक चरम ग़रीबी के उन्मूलन का लक्ष्य रखा गया है लेकिन कोरोनावायरस संकट की वजह से ना इस पर सिर्फ़ गम्भीर ख़तरा पैदा हो गया है बल्कि हालात और भी ख़राब होने की आशंका जताई जा रही है। 

महिलाओं व लड़कियों के लिये ग़रीबी दर बढ़ने का अर्थ सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में गिरावट दर्ज होना भी है।  

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के प्रशासक एख़िम श्टाइनर ने बताया कि 10 करोड़ महिलाओं व लड़कियों को ग़रीबी से निकाला जा सकता है बशर्ते के सरकारें शिक्षा के अवसरों, परिवार नियोजन, न्यायसंगत और समान वेतन व सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ाने पर ध्यान दे। 

“महिलाएँ कोविड-19 संकट के प्रकोप का सामना कर रही हैं क्योंकि उनके लिये अपनी आय का स्रोत खोने और सामाजिक संरक्षा उपायों से बाहर रहने की आशंका ज़्यादा है।”

ये भी पढ़ें - कोविड-19: महिलाओं व लड़कियों के लिये पीढ़ियों की प्रगति खो जाने का ख़तरा

“लैंगिक विषमताओं को घटाने में निवेश करना ना केवल स्मार्ट और किफ़ायती उपाय है बल्कि यह एक ऐसा ज़रूरी चयन है जिससे सरकारें ग़रीबी घटाने के प्रयासों पर महामारी के असर को उलट सकती हैं।”

वैसे तो अध्ययन के निष्कर्ष चिन्ताजनक है लेकिन अनुमान लगाया गया है कि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के महज़ 0.14 फ़ीसदी (2 ट्रिलियन डॉलर) की मदद से दुनिया को चरम ग़रीबी के चंगुल से निजात दिलाई जा सकती है।  

48 अरब डॉलर की धनराशि की ज़रूरत लैंगिक स्तर पर ग़रीबी की खाई को पाटने में होगी। 

लेकिन अगर सरकारें असरदार कार्रवाई करने में विफल रहती हैं या देर करती हैं तो प्रभावितों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा होने की आशंका है। 


Thursday, September 10, 2020

लैंगिक समानता और युवा विकास

 हर तीन में एक व्यक्ति युवा है                                 


महिलाओं का आर्थिक सशक्तीकरण समावेशी आर्थिक विकास के केंद्र में है और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजीज़) को हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण है। दुनिया की प्रत्येक महिला और बालिका की समानता सुनिश्चित करने वाले परिवर्तनकारी उपायो को एसडीजीज़ ऐतिहासिक मंच प्रदान करते हैं। महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण हेतु निवेश करने से लैंगिक समानता, गरीबी उन्मूलन और समावेशी आर्थिक वृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। लेकिन अर्थव्यवस्था में महिलाओं और बालिकाओं को समाहित करने और कार्यस्थलों एवं सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित बनाने के साथ-साथ महिलाओं और बालिकाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने की भी जरूरत है। साथ ही समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी और उनके स्वास्थ्य एवं संपन्नता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

भारत में युवाओं की संख्या बहुत अधिक है। हर तीन में एक व्यक्ति युवा है, यानी 15 से 24 वर्ष के बीच, और देश की जनसंख्या में बच्चों की संख्या 37% के करीब है। 2020 तक देश की औसत आयु 29 वर्ष होगी। भारत की आर्थिक वृद्धि की संभावनाएं और एसडीजीज़ की उपलब्धियां बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि युवाओं में कौशल, ऊर्जा और सफलता की कितनी इच्छा है तथा क्या नेतृत्व, भागीदारी और स्वेच्छा को पोषित करने वाली प्रभावशाली प्रक्रियाएं उपलब्ध हैं। एसडीजीज़ के 169 उद्देश्यों में से 65 में स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से युवाओं का उल्लेख है और ये उद्देश्य सशक्तीकरण, भागीदारिता और जन कल्याण पर केंद्रित हैं। उचित अवसर मिलने पर युवा वर्ग देश का सामाजिक और आर्थिक भाग्य बदल सकता है। लेकिन इस परिवर्तन के लिए सतत निवेश और भागीदारी की जरूरत है, साथ ही युवाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं रोजगार से संबंधित मुद्दों पर व्यापक रूप से काम करना भी। युवाओं का मनोबल बढ़ाया जाना चाहिए और जिन क्षेत्रों का प्रत्यक्ष प्रभाव उनके भविष्य पर पड़ने वाला है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों से संबंधित फैसलों में उन्हें सहभागी बनाया जाना चाहिए।

चुनौती

महिलाएं एक हिंसा मुक्त परिवेश में सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें, इसके लिए उन्हें सहयोग देने के साथ-साथ उनका आर्थिक सशक्तीकरण भी जरूरी है। बाल लिंगानुपात (सीएसआर) में गिरावट, पक्षपातपूर्ण तरीके से लिंग चयन की परंपरा और बाल विवाह, इन सभी से पता चलता है कि लैंगिक भेदभाव और लैंगिक असमानता किस हद तक भारत के लिए एक चुनौती बनी हुई है। महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा की घटनाएं भी बहुत होती हैं, विशिष्ट अल्पसंख्यक समूहों की महिलाएं अपने जीवनसाथियों की हिंसा का सर्वाधिक सामना करती हैं। पिछले 10 वर्षों में भारत में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, देश का सबसे अधिक हिंसक अपराध रहा है। चूंकि हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना दर्ज होती है।

किसी भी समाज का युवा वर्ग ऐसा दृष्टिकोण, प्रभाव, कौशल और आचरण विकसित कर सकता है जो सूचनाओं और सेवाओं को सुरक्षित, स्वस्थ रखने की मांग करे, भेदभाव और हिंसा समाप्त हो, विशेष रूप से बालिकाओं के खिलाफ, और ऐसा नागरिक समाज तैयार हो जिसका परिवेश सभी को समान रूप से दक्षता हासिल करने का मौका दे। ऐसी नीतियां बनाने और आचरण विकसित करने में उन्हें भागीदार बनाया जाना चाहिए जिनमें सभी लिंगों को मान्यता मिले और लैंगिक रूढ़ियों और मानदंडों को चुनौती दी जा सके।

सरकार के कार्यक्रम और पहल

सरकार ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा को समाप्त करने को अपनी प्राथमिकता बनाया है। साथ ही उनकी तस्करी, घरेलू हिंसा तथा यौन शोषण रोकने के लिए विशेष उपाय किए हैं। नीतिगत कार्यक्रमों में लैंगिकता को प्रस्तावित और एकीकृत करने के लिए प्रयास भी किए गए हैं। जनवरी 2015 में बालिकाओं का संरक्षण और सशक्तीकरण करने वाले अभियान ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत की गई जिसे राष्ट्रीय स्तर पर संचालित किया जा रहा है। वित्त पोषण सेवाओं के साथ महिलाओं के दक्षता और रोजगार कार्यक्रम देश के कोने-कोने में सुविधाओं से वंचित ग्रामीण महिलाओं तक पहुंच रहे हैं। यौन शोषण, घरेलू हिंसा और असमान पारिश्रमिक से संबंधित कानूनों को भी मजबूती दी जा रही है।

राष्ट्रीय युवा नीति 2014 में युवाओं को सशक्त बनाने का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है। इस नीति में पांच सुपरिभाषित उद्देश्यों और 11 प्राथमिक क्षेत्रों की पहचान की गई है तथा इसमें प्रत्येक के लिए नीतिगत हस्तक्षेप का सुझाव है। प्राथमिक क्षेत्रों में शिक्षा, दक्षता विकास और रोजगार, उद्यमिता, स्वास्थ्य और स्वस्थ जीवनशैली, खेल, सामाजिक मूल्यों का प्रचार, सामुदायिक भागीदारी, राजनीति और प्रशासन में भागीदारी, युवाओं का जुड़ाव, समावेश और सामाजिक न्याय शामिल हैं। सरकार ने रोजगार बाजार में पूर्ण भागीदारी और रोजगार सेवाओं की उपलब्धता हासिल करने के लिए युवाओं को सक्षम बनाने की पहल की है। सरकार ने ग्रामीण युवाओं के क्षमता निर्माण के लिए दक्षता विकास कार्यक्रम शुरू किए हैं, खासतौर से गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले (बीपीएल), तथा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के अंतर्गत आने वाले युवाओं के लिए। स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों, शारीरिक विकास, डिजिटल समावेश, किशोर अपराध और बाल अपराध, नशीली दवाओं के दुरुपयोग, युवतियों के प्रति भेदभाव और अन्य युवा-विशिष्ट विषयों पर कार्य करने के प्रयास किए गए हैं।

संयुक्त राष्ट्र का सहयोग

लैंगिक समानता पर प्राथमिक समूह (यूएन विमेन द्वारा संयोजित) निम्नलिखित के माध्यम से लैंगिक समानता पर संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव को मजबूत करता है (i) लैंगिक समानता के मुद्दों पर जानकारी को व्यापक करना, (ii) साझा प्रोग्रामिंग, जनसमर्थन जुटाना, शोध और संवाद, और (iii) अंतर-सरकारी प्लेटफॉर्म्स के जरिए लैंगिक समानता के लिए संयुक्त राष्ट्र के साझा सहयोग को समर्थन देना और उसका निरीक्षण करना, ये प्लेटफॉर्म हैं, 2015 उपरांत कार्यसूची, बीजिंग + 20, महिलाओं की स्थिति पर गठित आयोग और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव 1325।

पक्षपातपूर्ण लिंग चयन पर केंद्रित उपसमूह, जिसमें यूएन विमेन, यूनिसेफ, यूएनडीपी और यूएनएफपीए शामिल हैं, का उद्देश्य लिंग चयन और बाल विवाह के खिलाफ किए जाने वाले कार्य को समर्थन देना है।

इसके लिए जन समर्थन अभियान चलाए जा रहे हैं जैसे HeForShe और लिंग आधारित हिंसा के खिलाफ 16 दिनों का एक्टिविज्म (प्रत्येक वर्ष 25 नवंबर से 10 दिसंबर तक)।  मार्च 2016 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर साझा संयुक्त राष्ट्र संवाद और जनसमर्थन अभियान शुरू किया गया। संयुक्त राष्ट्र ने नीति आयोग और MyGov के साथ मिलकर पहला Women Transforming India अभियान शुरू किया। इस ऑनलाइन अभियान में देश भर की महिलाओं की लगभग 1000 प्रेरणादायी आपबीतियां प्राप्त हुईं। इनमें से 12 उत्कृष्ट महिलाओं को चुना गया जो देश में उल्लेखनीय परिवर्तन कर रही हैं।

विमेन ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया 2017 के बारे में अधिक जानें

यूएनफपीए औऱ उसके साझेदारों ने किकस्टार्ट इक्वालिटी कैंपेन के जरिए 200 विद्यार्थियों को जोड़ा  तथा यूथ की आवाज की साझेदारी में पुरुषों और लड़कों को संलग्न करने वाला एक ऑनलाइन अभियान चलाया गया।

लिंग आधारित सांख्यिकी में डेटा गैप्स को दूर करने के लिए सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की सलाह एक फ्रेमवर्क बनाया गया, जिसने तीन क्षेत्रों का विश्लेषण किया- महिलाओं के समय का सदुपयोग, परिसंपत्ति का स्वामित्व और महिलाओं से होने वाली हिंसा की व्यापकता।

संयुक्त राष्ट्र के स्वयंसेवियों ने युवा मामले एवं खेल मंत्रालय के सहयोग से एक राष्ट्रीय बैठक का आयोजन किया ताकि राष्ट्रीय युवा नीति के कार्यान्वयन के लिए इनपुट्स दिए जा सकें। इस बैठक में समावेश, सामाजिक उद्यमशीलता, पर्यावरण और आपदा प्रबंधन, लैंगिक न्याय और समानता पर युवाओं और तकनीकी विशेषज्ञों ने चर्चा की।

यूएनएफपीए और यूएनवी ने दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर युवा लड़कों और लड़कियों के लिए यूथ अड्डा का आयोजन किया। इसका उद्देश्य युवाओं में राजनीतिक समझदारी विकसित करना था। यह क्या है, सिस्टम किस तरह काम करता है और व्यक्तिगत रूप से युवा किस प्रकार निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं।

आरकेएसके में यह परिकल्पना की गई है कि भारत में सभी किशोरों-किशोरियों  को अपने स्वास्थ्य और कल्याण से संबंधित सूचनापरक और जिम्मेदारीपूर्ण फैसले लेने का हक मिले और उन्हें अपनी पूर्ण क्षमता की अनुभूति हो।

भारत में यूएन ने गुवाहाटी में ब्रिक्स युवा वार्ता और उसके कार्रवाई संबंधी आह्वान के लिए युवा मामलों के मंत्रालय को तकनीकी सहयोग दिया। वार्ता का शीर्षक था, यूथ एज ब्रिज फॉर इंट्रा ब्रिक्स एक्सचेंज। इसके चार सत्र दक्षता विकास और उद्यमशीलता, सामाजिक समावेश, युवाओं में स्वयंसेविता और शासन प्रणाली में युवा भागीदारिता जैसे विषयों पर आधारित थे। (UNO in India)


Tuesday, September 8, 2020

महिलाएं और कोरोना का बढ़ता हुआ खतरा

गरीबी में लैंगिक अंतर बढ़ने की भी गंभीर आशंका


सोशल मीडिया
: 10 सितंबर 2020: (यू एन हिंदी//वीमेन स्क्रीन):: 

क्या कोरोना का खतरा महिलाओं को कुछ ज़्यादा होता है। भारत में  स्थित संयुक्त राष्ट्र ने इस तरह की आशंका का  ज़िक्र करते हुए कहा है कि यदि  ऐसा होता है तो बहुत से और खतरे भी बढ़ जायेंगे। अपने टवीट में UN  हिंदी ने कहा,"#COVID19 से पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं के प्रभावित होने से गरीबी में लैंगिक अंतर बढ़ने की आशंका है। साथ ही यह हवाला भी दिया गया है कि @undp और @un_women

की नई रिपोर्ट ने पाया है कि 4.7 करोड़ अतिरिक्त महिलाएं और लड़कियां गरीबी में धकेली जाएंगी जिससे दशकों में हुई प्रगति पलट सकती है। इस लिहाज़ से महिलाओं का ध्यान रखे जाने की आवश्यकता अधिक है। (तस्वीर यू एन हिंदी से साभार)

Saturday, August 1, 2020

महिला उद्यमियों की छलांग

 जीडीपी की नॉन लीनियर वृद्धि और समाज की उन्नति 
31 July 2018 
पॉला मारीवाला, को-प्रेज़िडेंट स्टैनफर्ड एंगल्स एंड इंटरप्रेन्योर्स इंडिया, निदेशक, हिंदीट्रोन ग्रुप, और इसी आलेख पर मेहनत करने वाली दूसरी लेखिका हैं राधिक शाह। उनका भी बहत नाम है। वह हैं एडवाइजर, सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स फिलेंथ्रॉपी प्लेटफॉर्म, को-प्रेज़िडेंट, स्टैनफर्ड एंगल्स एंड इंटरप्रेन्योर्स

विश्व में महिला उद्यमियों की संख्या बढ़ रही है और परिवर्तन का दौर जारी है- व्यापार की यह शैली असामान्य भले हो लेकिन अब जल्द ही एक कायदा बनने जा रही है।
हम मानते हैं कि विशेष रूप से इस डिजिटल दौर में महिलाओं को मजबूत करने तथा उनके लिए रोजगार एवं उद्यमिता का माहौल तैयार करने से लिंग भेद दूर होगा। साथ ही जीडीपी की नॉन लीनियर वृद्धि होगी और सार्वजनिक संपत्ति का निर्माण भी होगा। इसका समाज पर सकारात्मक प्रभाव होगा। दरअसल ऐसा व्यावसायिक मॉडल तैयार किया जाना चाहिए जो लैंगिक समानता को मजबूत करे और महिला नेतृत्व को मंच प्रदान करे।
भले ही यह एक व्यापक अनुमान और पूर्वाग्रह भरा बयान लगे, लेकिन हम इस बात से सहमत हैं कि शीर्ष पदों पर बैठी महिलाएं अक्सर ऐसे गुणों का प्रदर्शन करती हैं जिनसे आज की जटिल दुनिया में सफलता हासिल की जा सकती है, जैसे सहानुभूति और सहयोगपरक नेतृत्व, साथ ही लचीलापन और परस्पर लाभ का दृष्टिकोण। महिलाएं अपने समुदाय से जुड़ी होती हैं और समुदाय तथा विश्व पर अपने संगठन के नकारात्मक और सकारात्मक असर के बारे में अधिक जागरूक होती हैं। यह ऐसा गुण है जो आज के दौर में अधिक प्रासंगिक है। इसके विपरीत प्रबंधन की परंपरागत शैली में एक अकेला अल्फा लीडर टॉप डाउन स्टाइल में एक संगठन को चलाया करता है। वह अकेले फैसले लेता है और उसके सहयोगी कर्मचारियों को सिर्फ उन फैसलों का पालन करना होता है।
यहां कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है जिनके जरिए शीर्ष पदों पर बैठी महिलाएं समाज को प्रभावित करने वाले लाभकारी संगठनों की स्थापना कर सकती हैं। साथ ही एक सहयोगपरक अर्थव्यवस्था का भी निर्माण कर सकती हैं।
सहयोगपरक नेतृत्व वाली टीम: 
शीर्ष पदों पर बैठी महिलाएं अक्सर अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर काम करती हैं जिससे विभिन्न प्रकार के विचारों का आदान-प्रदान होता है और बेहतर परिणाम निकलते हैं।
एक दूसरे के प्रतिसंवेदना हो तो लोग परस्पर जुड़ते हैं और काम करने के लिए प्रेरित होते हैं: दूसरे के नजरिए से सोचने से किसी व्यक्ति के विचारों को गहराई से समझने में मदद मिलती है और शीर्ष पदों पर बैठी महिलाएं, कंपनी के भीतर कर्मचारियों में और कंपनी के बाहर पार्टनर्स में काम के प्रति उत्साह पैदा कर सकती हैं।
उत्तरदायित्वपूर्ण व्यापारिक मॉडल्स: 
ऐसी अनेक महिलाएं हैं जो देश-दुनिया के बारे में सोचती हैं। इसीलिए अक्सर वे ऐसे व्यापारिक मॉडल/दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं जिनका विश्व स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और सार्वजनिक संपत्ति का निर्माण होता है- कई बार ये डबल या ट्रिपल बॉटम लाइन मॉडल्स होते हैं। वे उस माहौल में भी सकारात्मक पहल करती हैं, जहां कोई दूसरे के बारे में नहीं सोचता।
साझेदारीसे परस्पर लाभ की सोच पैदा होती है: सहयोग की इच्छा के कारण ऐसे संयुक्त उपक्रम स्थापित होते हैं जो एक दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं। विश्व की कुछ चुनौतियों से निपटना आसान होता है, जीडीपी की नॉन लीनियर वृद्धि होती है और उन नए क्षेत्रों से मुनाफा कमाया जाता है जिनका अब तक अस्तित्व ही नहीं होता।
हम यहां परिवर्तन की अगुवा कुछ भारतीय महिलाओं के उदाहरण पेश कर रहे हैं। उन्होंने अपने रचनात्मक डिजिटल मॉडल्स से उद्योग जगत की तस्वीर ही बदल दी। उनकी कंपनियों ने भरपूर मुनाफा कमाया, कई ने अपने देश में, तो कई ने पूरी दुनिया में परिवर्तन की लहर पैदा कर दी।
1.सामासोर्स की सीईओ लीला जानाह का असर पूरी दुनिया में नजर आता है। सामासोर्स ने डिजिटल माइक्रोवर्क को सिलिकॉन वैली से दक्षिण एशिया, अफ्रीका तक पहुंचाया है और ग्रामीण महिलाओं को गरिमा प्रदान करते हुए उन्हें सशक्त किया है। उनकी कंपनी विभिन्न देशों में स्थानीय संगठनों के साथ काम करती है और महिलाओं को नए किस्म का काम सिखाती है। सामासोर्स ने ग्रामीण महिलाओं की सामाजिक स्थिति को मजबूत किया है। कभी परिवार के सदस्यों पर आर्थिक रूप से निर्भर रहने वाली महिलाएं अब परिवार की सबसे ज्यादा कमाऊ सदस्य बन गई हैं।
2.योरदोस्त की सीईओ ऋचा सिंह ने मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक नई पहल की। उन्होंने भारत में मनोचिकित्सकों को उन लोगों से ऑनलाइन जोड़ा जिन्हें भावनात्मक मदद और चिकित्सा की जरूरत है। उन्होंने सुनिश्चित किया कि उन लोगों की पहचान सुरक्षित रहे- इंटरनेट के जरिए लोगों को गुमनाम रखना सरल है और ऋचा ने इसका लाभ उठाया। स्वास्थ्यकर्मियों और मरीजों के बीच एक संबंध कायम हुआ- व्यापार का एक नया मॉडल उभरकर सामने आया और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पूर्वाग्रह तोड़ने में मदद मिली।
3.जुम की रितु नारायण सुरक्षित और भरोसेमंद यात्रा मुहैय्या कराती हैं जिनके कारण समाज के संवेदनशील वर्गों जैसे बच्चों और बुजुर्गों को विश्वासपात्र, जानकार और जांचे-परखे ड्राइवर्स के साथ सफर करने का मौका मिलता है। ड्राइवर्स यात्रियों की पूरी देखभाल करते हैं और उन्हें सुरक्षित पिक अप/ड्रॉप सर्विस उपलब्ध कराते हैं।
4.फ्रंटियर मार्केट्स की अजेता शाह ग्रामीण परिवारों को स्वच्छ ऊर्जा उत्पाद उपलब्ध कराती हैं। इसके लिए उन्होंने ग्रामीण महिलाओं का एक वितरण नेटवर्क सोलर सहेली तैयार किया है जोकि रोजगार सृजन भी करता है। उनकी कंपनी ने 3000 ग्रामीण उद्यमी तैयार किए हैं जिनमें से एक तिहाई महिलाएं हैं। ये सभी मिलकर 380,000 परिवारों को सौर ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं और बिजली की समस्या भी दूर होती है।
इन प्रेरणाप्रद महिलाओं ने उत्तरदायित्वपूर्ण और समावेशी नेतृत्व की मिसाल पेश की है। उनके नेतृत्व से समाज पर सकारात्मक असर हुआ। उनके व्यापारिक मॉडल ने मुनाफा कमाने के साथ-साथ समाज की मदद भी की है। इन मॉडल्स ने तकनीक का उपयोग करके नया दृष्टिकोण विकसित किया है और बड़े पैमाने पर लोगों का जीवन बदला है। विश्व में महिला उद्यमियों की संख्या बढ़ रही है और परिवर्तन का दौर जारी है- व्यापार की यह शैली भले ही असामान्य हो लेकिन अब जल्द ही एक कायदा बनने जा रही है।
हम महात्मा गांधी के कथन से इस लेख को समाप्त करते हैं जो आज के डिजिटल युग में भी प्रासंगिक है। वह कहा करते थे-“स्त्रियों को कमजोर बताना उनका अपमान करना है, यह पुरुषों द्वारा महिलाओं के प्रति अन्याय है। अगर शक्ति का अर्थ क्रूरता है तो निस्संदेह स्त्रियां पुरुषों से कम क्रूर हैं। पर अगर ताकत का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्रियां पुरुषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। क्या उनमें अधिक अंतर्ज्ञान नहीं होता, क्या वे अधिक आत्म-त्याग नहीं करतीं, क्या उनमें अधिक धीरज नहीं होता, क्या उनमें अधिक साहस नहीं होता? उनके बिना पुरुषों का क्या अस्तित्व है। अगर अहिंसा हमारे अस्तित्व का कारण है, तो भविष्यकाल स्त्रियों के नाम है।”

लेखकों के विषय में
पॉला मारीवाला ने सफलता के लिए किये जाते संघर्ष कोइतना नज़दीक से देखा कि वह संघर्ष का रूप ही हो गई। वह स्टैनफर्ड एंजल्स एंड इंटरप्रेन्योर्स इंडिया की संस्थापक और को-प्रेज़िडेंट हैं। यह स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के एल्यूमनीज़ का समूह है जोकि एंजल इनवेस्टर्स के तौर पर स्टार्टअप कंपनियों में शुरुआती चरण में निवेश करता है। पॉला भारत के प्रमुख अर्ली स्टेज वेंचर कैपिटल फंड सीडफंड की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर भी हैं। वह देश की सबसे पुरानी आईटी कंपनी हिंदीट्रोन की डायरेक्टर हैं। भारत में हिंदीट्रोन का 25 से अधिक कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम है जोकि उन्हें देश में हाई टेक उपकरणों की बिक्री का मुख्य खिलाड़ी बनाती है। यूएसए और भारत, दोनों देशों की टेक कंपनियों को पॉला के 20 साल के उद्यमिता और ऑपरेशनल अनुभवों का लाभ हासिल हुआ है।
राधिका शाह इसी क्षेत्र की एक अनुभवी  लेखिका है। उसने वही लिखा जो उसने जिंदगी में बेहद करीब हो कर देखा। जिंदगी को बहुत ही नज़दीक हो कर देखे बिना इसके रहस्य और सत्य समझ भी नहीं आते। सिलिकॉन वैली की एंजल और इंपैक्ट इनवेस्टर तथा स्टैनफर्ड एंजल्स एंड इंटरप्रेन्योर्स की को-प्रेज़िडेंट हैं। इन पदों पर भी उसने गहरा अनुभव अर्जित किया। यह स्टैनफर्ड के 1200 से अधिक पूर्व विद्यार्थियों, फैकेल्टी और एल्यूमनी का समूह है। वह सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स फिलेंथ्रॉपी प्लेटफॉर्म की एडवाइज़र और पूर्व अशोका सीवी चैप्टर की सह संस्थापक हैं। भारत में एसवी लीडरशिप काउंसिल की सदस्य हैं और इंपैक्ट एक्सपीरियंसेज एंड एल्यूमन कैपिटल की एडवाइजर हैं जो इंपैक्ट फंड्स का एक कोष है। सबसे बड़ी बात इस समय वह  आइकॉन की तरह इ। वह इ महिलायों के लिए एक उदाहरण भी है। 

Tuesday, July 28, 2020

लोगों में उम्मीद की किरण जगाती अंजली

 अस्पताल वॉर्ड के बाहर भी है ज़िंदगी 
27th July 2018 
*परोमिता चौधरी, प्रोग्राम ऑफिसर, ओक फाउंडेशन और
*रेशल मेककी, कम्यूनिकेशन ऑफिसर, ओक फाउंडेशन
भारत के अनेक भागों में मानसिक बीमारियों से लोग डरते हैं- परिवार के सदस्य सोचते हैं कि मरीजों की देखभाल करने से उन पर वित्तीय बोझ पड़ेगा, चूंकि ऐसा माना जाता है कि मानसिक रोगी कभी कोई रोजगार नहीं कर सकते। 
शंपा पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के पावलोव मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल के कैफेटेरिया में काम करती है। चा-घर (बांग्ला में) नाम के इस कैफेटेरिया में घुसते ही आपका स्वागत इतनी गर्मजोशी से किया जाएगा कि आपका ह्दय गदगद हो जाएगा। शंपा सहित यहां काम करने वाली छह महिलाएं उजली मुस्कान से आपका स्वागत करेंगी और भरपूर नाश्ता और गर्मागर्म चाय या कॉफी पिलाएंगी। हालांकि कुछ समय पहले तक ये महिलाएं परेशान हाल इसी अस्पताल में मरीजों के तौर पर भर्ती थीं।
भारत के ज्यादातर हिस्सों में मानसिक बीमारियां एक श्राप की तरह हैं। लोग घबराते हैं कि मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल कैसे की जाएगी। इन लोगों को बोझ समझा जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मानसिक रूप से बीमार लोग कोई रोजगार नहीं कर सकते। यह भय मानसिक बीमारियों को एक कलंक बनाता है। रोगी के स्वस्थ होने के बावजूद परिवार के लोग उससे कोई नाता नहीं रखना चाहते। अंजली नामक संस्था मानसिक रोगियों के लिए काम करने वाले संगठनों में से एक है। यह उनके बीच काम करती है और मनोसामाजिक विकारों से ग्रस्त लोगों के अधिकारों के लिए जन समर्थन जुटाती है। कोलकाता के मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल्स के साथ काम करने के दौरान अंजली ने यह महसूस किया कि मरीज किस तरह अपने समुदायों से कट जाते हैं। उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास नहीं किया जाता।
अंजली के कर्मचारियों ने पश्चिम बंगाल के दो अस्पतालों- कोलकाता के पावलोव मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल और मुर्शीदाबाद के बेहरामपुर हॉस्पिटल से बातचीत की। इसके बाद संस्था ने मरीजों के इलाज के तरीकों में विविधता लाने के लिए अस्पताल के साथ काम करना शुरू किया। इस तरह के इलाज में दवाएं देना शामिल नहीं था। आम तौर पर मरीज नए काम सीखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद होती है कि इसके जरिए वे आत्मनिर्भर बन सकते हैं, साथ ही परिवार की आय में योगदान दे सकते हैं। अंजली ने मरीजों को विभिन्न कलाएं, जैसे संगीत, चित्रकला और थियेटर सीखने का मौका दिया।
तीन वर्षों में अंजली ने दो अस्पतालों के साथ मिलकर कई माइक्रो इंटरप्राइज़ शुरू किए। पावलोव हॉस्पिटल में मिनी लॉन्ड्रेट (लॉन्ड्री), टाई एंड डाई यूनिट और कैफेटेरिया शुरू किया गया। बेहरामपुर हॉस्पिटल (मुर्शीदाबाद का जिला मुख्यालय) में डेलिकेट इंब्रॉयडरी यूनिट खोली गई। इन सभी इंटरप्राइज़ेज़ में ज्यादातर वही लोग काम कर रहे हैं, जो कभी अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे। हालांकि कैफेटेरिया में काम करने वाली कुछ महिलाएं अपने घर लौट चुकी हैं और कैफेटेरिया में काम करने के लिए रोजाना अपने घर से आती हैं (कई बार दो घंटे का सफर तय करके)।
इन माइक्रो इंटरप्राइज़ेज़ में काम करने वाले 50 से अधिक स्वयंसेवियों ने उम्मीद और जिजीविषा की कहानियां बुनी हैं। लोगों की अवहेलना, हिंसा, लांछन और अपमान सहने के बावजूद उनमें हिम्मत कायम है और इसी की वजह से वे दोबारा अपनी जिंदगी संवारने की कोशिश कर रहे हैं। शंपा को ही लीजिए। अपनी बेटी की कस्टडी पाने के लिए उसने लंबी अदालती लड़ाई लड़ी है। उसके पति ने यह कहकर शंपा को उसकी बेटी से अलग कर दिया था कि शंपा की ‘मानसिक स्थिति ठीक नहीं’ है।
इन माइक्रो इंटरप्राइज़ेज़ ने रूढ़ियां भी तोड़ी हैं। इनसे यह साबित हुआ है कि मानसिक बीमारियों के शिकार लोगों को निरर्थक और निकम्मा नहीं माना जाना चाहिए। यह भी कि मनोसामाजिक विकार से ग्रस्त महिलाएं भी काम कर सकती हैं, रोजगार कर सकती हैं।
समाज के कुछ तबकों में मनोसामाजिक विकार के शिकार लोगों को गंदा समझा जाता है। इसलिए यह देखने के बाद कि ये लोग कड़ी मेहनत करके अस्पताल के बिस्तर, पर्दों, कपड़ों वगैरह को साफ-सुथरा, क्रिस्प रखने की कोशिश कर रहे हैं, यह भ्रामक धारणा टूटती है। इसी सोच के कारण स्वस्थ होने के बावजूद लोगों को सम्मानजनक, उत्पादक जीवन से महरूम होना पड़ता है। माइक्रो इंटरप्राइज़ेज़ ने इस सोच को बदला है। यहां काम करने वाले लोग एक महीने में लगभग 15-16 दिन काम करते हैं और 8 घंटे काम करके करीब 5 US$ कमा लेते हैं।
चा-घर यह भी बताता है कि भूख की भाषा एक ही होती हैं और पकाने वाले की मेहनत ही `भोजन को स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाती है। आप उन लोगों के हाथों से पका और परोसा खाना भी खा सकते हैं जो कभी मानसिक बीमारियों का शिकार थे। यह भी कि हम सभी के अधिकार एक बराबर हैं- हम सभी को सम्मानजनक जीवन जीने का हक है। इस कैफेटेरिया में रोजाना करीब 200 ग्राहक आते हैं। इनमें अस्पताल के कर्मचारी, मरीज या मरीज के परिवार के सदस्य, सभी शामिल होते हैं। ग्राहक खुश होते हैं कि उन्हें अस्पताल के अंदर ही किफायती और पौष्टिक खाना मिल जाता है- शंपा और उसकी साथिनें खुश होती हैं क्योंकि अब उन्हें छोटे-मोटे खर्चे या अपने बच्चों को स्कूल भेजने लिए दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ते। चूंकि हर महीने कैफेटेरिया की कमाई 50 US$ के करीब है।
अंजली ने माइक्रो इंटरप्राइज़ शुरू करने का सुझाव दिया। अस्पताल प्रशासन ने इस सुझाव को माना और इस सपने को हकीकत में बदला। अब अस्पताल के मरीजों के लिए नई राह खुली है। इस पहल की कामयाबी से दूसरे भी प्रेरणा ले रहे हैं। कई अन्य जगहों पर ऐसी पहल की जा रही है। अंजली और दूसरी सरकारी संस्थाएं इसमें अपना सहयोग देने के लिए तैयार हैं। शंपा और उसकी साथिनें दूसरे मरीजों को प्रेरणा दे रही हैं जिन्होंने यह मान लिया था कि अस्पताल का वॉर्ड ही अब उनकी दुनिया है। इस बीच अंजली, अस्पताल और उसके स्वयंसेवी इस मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं। मिलजुलकर मरीजों के लिए ऐसी दुनिया रच रहे हैं जहां वे आजाद होकर सफल जिंदगी जी सकें। (UN India)
**निजता के लिए कुछ लोगों के नाम बदल दिए गए हैं और उनकी पहचान से जुड़े विवरण में परिवर्तन कर दिया गया है।

लेखक के बारे में
*पारोमिता चौधरी
पारोमिता चौधरी ने 2012 में प्रोग्राम ऑफिसर के तौर पर ओक फाउंडेशन में काम करना शुरू किया। वह ज्वाइंट इंडिया प्रोग्राम में ग्रांट्स का प्रबंधन करती हैं। ओक फाउंडेशन से पहले वह केयर इंडिया और ऑक्सफैम ग्रेट ब्रिटेन में प्रजनन अधिकारों, आर्थिक न्याय, अनिवार्य सेवा अधिकारों और लैंगिक न्याय जैसे क्षेत्रों में काम कर चुकी हैं। वह पिछले 20 सालों से सामाजिक विकास के क्षेत्र से जुड़ी हैं और उन्हें भारत के सुदूर जिलों में उल्लेखनीय कार्य करने का अनुभव है। इस विशेष रचना में भी पारोमिता चौधरी ने बहुत ही संवेदनापूर्ण और दिलचस्प ढंग से अंजलि की कहानी सुनाई है जो पढ़ने सुनने वालों को प्रेरणा देती है। 
*रेशल
रेशल ने 2012 में राइटर/एडिटर के तौर पर ओक फाउंडेशन में काम करना शुरू किया था। 2017 में वह कम्यूनिकेशन ऑफिसर बनीं। स्टाफ, ट्रस्टी और पार्टनर्स के साथ उन्होंने संस्था की रिपोर्ट्स को संपादित किया और वार्षिक रिपोर्ट्स तथा दूसरे प्रकाशनों जैसे वेबसाइट्स और न्यूजलेटर्स के लेखों को लिखने और संपादित करने का काम किया। रेशल संस्था के बाहरी और भीतरी कम्यूनिकेशन के लिए वीडियो बनाती हैं। इसके अलावा ओक ग्रांटीज के साथ सोर्स स्टोरीज, फोटो और संस्था के कामों की दूसरी जानकारियां साझा करती हैं।
रेशल को स्विट्जलैंड में मानवतावादी और मानवाधिकार संगठनों के लिए कम्यूनिकेशन का काम करने का आठ साल का अनुभव है। उन्होंने वार्षिक रिपोर्ट्स और दूसरे प्रकाशनों में लिखने, संपादन करने और प्रिंट प्रोडक्शन प्रक्रियाओं का प्रबंधन करने में अपना अत्यधिक समय बिताया है। इससे पहले वह डबलिन और लंदन में एक आयरिश नेशनल ब्रॉडकास्टर के सेल्स और मार्केटिंग डिविजन में सात सालों तक काम कर चुकी हैं। वहां रेशल एयरटाइम नेगोसिएशन, सेल्स और मीडिया प्लानिंग में शामिल थीं।