किस असुरक्षा के चलते नारी के मन में होती है पुत्र की चाह?
मुनाफाखोरी की सोच से भरे सिस्टम की या है भूमिका
नारीवाद के साथ साथ नारी की कलम में ज़ोर भी बढ़ रहा है और बेबाकी भी। सदियों से चले आ रहे शोषण के खिलाफ बुलंद होती आवाज़ अब इस मामले में नारी द्वारा होते शोषण को भी नज़र अंदाज़ नहीं करती। नारी जब खुल कर बेबाकी से लिखती है तो नारी भी उसके निशाने पर रहती है। ऐसी ही एक रचना इन्हीं दिनों सोशल मीडिया पर भी नज़र आई। तेजी सेठी जी द्वारा पोस्ट इस रचना में शोषण की जड़ों तक पहुंचने का प्रयास किया गया है।
उन्होंने आल इंडिया इंसीचियूट ऑफ़ मेडिकल साइंसिज़ में शिक्षा पाई और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुडी हुई हैं। उनकी लेखनी में विज्ञान का स्वर गहराई से सुनाई देता है। ज़्यादातर साहित्य अंग्रेज़ी में रचा इसलिए उनका अध्यन, सोच और दायरा भी एक तरह से ग्लोबल ही हो गया।
मात्रभाषा और स्वदेश भाषायो से लगाव उन्हें वापिस इनके पास भी ले आया। हिंदी में भी उन्होंने उच्च कोटि की उत्कृष्ट रचनाएँ लिखी हैं जो सोचने पर मजबूर करती हैं। जिस कविता को यहाँ दिया जा रहा है वह भी सोचने को मजबूर करती है।
चाहती हैं अपनी कोख से पुत्र
ताकि वक्त आने पर
दूध का मोल सकें
और मां बनने से पहले
बन बैठती हैं व्यापारी
फिर उसी रक्त उपजता है एक पुरुष
जो अपनी स्त्री का लगता है मौल
अपर यह कोई समझ नहीं पाता
कि यह सोच उस तक पहुंची है
गर्भ नाल से
और उस पहली स्त्री की अपेक्षाओं का बोझ
ढोती है दूसरी स्त्री
यहाँ हर स्त्री
यहां हर स्त्री किसी दूसरी स्त्री की
मज़दूरी कर रही है
और खड़ी कर रही है पितृसत्ता की दीवार
------------तेजी
तेजी सेठी की यह काव्य रचना आपको कैसी लगी अवश्य बताएं। साथ ही इस पर भी कुछ कहें तो अच्छा होगा कि औरत को इस तरह सोचने के लिए किसने मजबूर किया। क़ज़ा समाज इस संबंध में अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास करेगा? क़ज़ा व्यापारी करण को बढ़ावा देने वाला पूंजीवाद इस संबंध में कुछ स्वावलोकन करेगा?